प्रतिरोध की संस्कृति के संवाहक चौथीराम यादव

  • डाॅ. कृष्ण

प्रोफेसर चौथीराम यादव की छवि मेरे मानस में एक कुशल प्राध्यापक और सहृदय व्यक्ति की ही रही है। सौभाग्यतः मुझे उनका शिष्य होने का गौरव हासिल है। उन दिनों जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मेरे साथी किसी प्राध्यापक के घर जाना उनकी चाटुकारिता समझते थे, मैं उनके आवास पर उनसे पढ़ने कई बार गया और समृद्ध हुआ। 

महिला मित्रों के साथ अड्डेबाजी और बतरस के मोह के बावजूद विभाग में भी उनकी कक्षा शायद ही कभी छोड़ी हो। एक अध्यापक के रूप में वे हम छात्रों के बीच अत्यंत लोकप्रिय रहे हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी पर केन्द्रित उनकी पुस्तक का उपयोग एम. ए. की कक्षाओं के नोट्स के लिए करने के बावजूद उनके आलोचक, विचारक, चिंतक रूप से परिचित नहीं हो सका था। हिन्दी आलोचना परंपरा में भी उनका नामोल्लेख कहीं देखा, सुना नहीं।  

सेवानिवृत्ति के बाद से संगोष्ठियों और सेमिनारों में उनकी धूम अवश्य मच रही है और एक प्रखर वक्ता के रूप में वे लोकप्रिय हो रहे हैं। हिन्दीभाषी क्षेत्र की तो बात ही छोड़ें, इन दिनों पश्चिम बंगाल के किसी साहित्यिक आयोजन की सफलता की ‘गारंटी’ है। वे कोलकाता, बर्द्धमान, दुर्गापुर, आसनसोल के कई–कई आयोजन इसके गवाह हैं। इन नगरों के बांग्लाभाषी श्रोता भी उन्हें सुनने को उत्सुक रहते हैं।     

पिछले कुछ दिनों से उनके इधर के आलेखों से गुजर रहा हूं, यथा – ‘हिन्दी नवजागरण और उत्तर सदी के विमर्श’, 'दलित चिंतन की प्रति परंपरा और कबीर’, ‘नागार्जुन की कविता में प्रतिरोध के स्वर’, ‘स्त्री-विमर्श की चुनौतियां और छायावाद के मुक्ति स्वर’ और सर्वोपरि ‘अवतारवाद का समाजशास्त्र और लोकधर्म’। इन आलेखों को पढ़ने के बाद लगा कि एक आलोचक, विचारक, चिन्तक के रूप में बिना किसी लाग-लपेट के, सीधे –सीधे, पुष्ट तर्कों के साथ वर्चस्व की संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध की संस्कृति का बिगुल फूंकने वाले किसी योद्धा की तरह अडिग खड़े हैं वे। 

‘अवतारवाद का समाजशास्त्र और लोक धर्म’ में उन्होंने भक्तिकाल विषयक सामान्य समझ मे भारी हेर-फेर किया है। उनके निष्कर्षों को मानने की इच्छा न होने के बावजूद उनके तर्क और विश्लेषण विवश करते हैं। अब तक भक्तिकाल का शुक्ल जी द्वारा किया गया निर्गुण –सगुण का वर्गीकरण मान्य था और इसी आधार पर दो खेमे बन जाते थे। कबीर, जायसी एक तरफ और सूर, तुलसी, मीरा दूसरी तरफ। लेकिन चौथीराम जी कहते हैं –

"सूरदास के सामाजिक विचार और उनकी भक्ति का स्वरूप, दोनों तुलसी की अपेक्षा कबीर के अधिक निकट प्रतीत होते हैं ’, साथ ही –‘प्रतिरोध की सामाजिक वैचारिकी की दृष्टि से कबीर, मीरा और सूर की गोपियाँ एक कतार में खड़ी दिखायी देती हैं।" अंतत: वे प्रस्तावित करते हैं – ''कबीर मीरा और सूर की भक्ति के स्वरूप को निर्गुण –सगुण के आधार पर नहीं, उसके सामाजिक चिंतन के आधार पर समझा जाना चाहिए ।" वे बिना किसी ढाल के सीधे आचार्य शुक्ल से मुठभेड़ करते हैं और उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे डॉ रामविलास शर्मा पर भी व्यंग्य बाण छोड़ते हैं। 

'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना' के प्रकाशन के बाद से एक लंबी चुप्पी पसरी हुई थी हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में। कोई रामविलास जी से टकराने की हिम्मत नहीं कर रहा था, किन्तु चौथीराम जी ने शुक्ल जी की असंगतियों को, उनके पूर्वाग्रहों को निडर होकर विवेचित-विश्लेषित किया। साथ ही इस शताब्दी वर्ष में जब चारों ओर रामविलास जी के भजन- पूजन के लिए यजमान से लेकर पुरोहित गण तक उमड़ पड़ रहे हैं, चौथीराम जी उनका तर्कसंगत विश्लेषण कर रहें हैं। उनकी चूकों पर अंगुली रख रहे हैं। वे साफ लिखते हैं –‘'शुक्ल जी की आलोचना में सामंजस्य का परिणाम यह हुआ की पौराणिक मत ही लोकमत और वर्णधर्म ही लोकधर्म बन गया।'' 

इसी तरह वे शुक्ल जी द्वारा तुलसी के राम को लोकरक्षक और सूर के कृष्ण को लोक रंजक मान कर सूर को एक दर्जा नीचे रखे जाने का विरोध करते हैं। उन्होंने लिखा – 

''राम को लोक रक्षक और कृष्ण को लोकरंजक कहना अंतिम सत्य नहीं हो सकता। माना किसूर के कृष्ण धर्म रक्षा के लिए अवतार लेने वाले कृष्ण नहीं हैं लेकिन लोक रक्षा को धर्म रक्षा का पर्याय माने बिना क्या राम को लोक रक्षक कहा जा सकता है? लोक रक्षा क्या धर्म रक्षा तक सीमित है ? कहीं इसलिए तो नहीं कि सूर के कृष्ण भी कबीर के राम की तरह धनुर्धर नहीं हैं। "

साथ ही वे लिखते हैं – "यदि धर्म रक्षा को ही लोक रक्षा का पर्याय माना जाये और तुलसीदास के मोह एवं पुराण मतवादी दुराग्रहों से मुक्त होकर विचार किया जाये तो रावण का बध करने के कारण जैसे राम लोकरक्षक हैं वैसे कंस का बध करने के कारण कृष्ण भी लोकरक्षक हैं।’ शायद ही शुक्ल जी का कोई अंधभक्त भी उनके इस तर्क से असहमत हो। शुक्ल जी को कंस और उनके साथियों का अत्याचार ‘सभ्य अत्याचार’ लगता है, साथ ही शुक्ल जी को जहां किसी की मृत्यु पर देवगण पुष्प बरसाते हुए नजर आते हैं वही ‘लोकव्यापी प्रभाव का कुछ आभास मिलता है’ चौथीराम जी लिखते हैं– ‘'सूरदास देवताओं के उतने मोहताज न थे, उनकी दृष्टि धरती की ओर है आकाश कि ओर नहीं। इसीलिए देवताओं की अपेक्षा वह मनुष्यों की प्रसन्नता को और देवलोक की अपेक्षा मानवलोक को ज्यादा महत्व देते हैं।’'

चौथीराम जी तुलसी के राम की अपेक्षा सूर के कृष्ण को अधिक स्त्रीवादी मानते हैं क्योंकि राम तो अग्निपरीक्षा लेने वाले हैं और कृष्ण द्रोपदी की लाज बचाने वाले। वे लिखते हैं–"द्रौपदी की पुकार धर्म रक्षा के लिए की गयी पृथ्वी की पौराणिक पुकार नहीं है, बल्कि अस्मिता की रक्षा के लिए की उत्पीड़िता नारी की सच्ची पुकार है। यहाँ पर दुःशासन और दुर्योधन का अत्याचार तो असुरों के कल्पित अत्याचार से कहीं ज्यादा असभ्य प्रतीत होता है; तब फिर इन्हें कंस और रावण की तरह का बड़ा लोकशत्रु क्यों न माना जाये? क्या इसलिए कि ये हमारे लोक के प्राणी हैं, असुर लोक के नहीं। क्या स्त्री की जातीय अस्मिता और उसके मान-सम्मान की रक्षा से बढ़ कर भी कोई लोक रक्षा हो सकती है? यहाँ तो लोकरक्षक कृष्ण, सीता की अग्निपरीक्षा लेने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा को भी आईना दिखाते प्रतीत होते हैं।" 

तुलसी के ‘रामचरितमानस’ के आधार पर बनाया गया आचार्य शुक्ल का लोक मंगल का प्रतिमान और उस प्रतिमान पर सूर के काव्य के खरा न उतर पाने की दलील इन तर्कों के आधार पर कितनी सरलीकृत है, इसका मूल्यांकन अब होना ही चाहिए।    

तुलसीदास के वर्णाश्रम समर्थक और शूद्र एवं स्त्री विरोधी दृष्टि को आचार्य शुक्ल द्वारा महिमामंडित किए जाने और राम विलास जी के द्वारा उसे ‘डिफेंड’ किए जाने को चौथीराम  जी ने विस्तार से रेखांकित किया और अपने पक्ष मे मुक्तिबोध के भक्तिकाल विषयक विचारों का उपयोग करते हुए लिखा- ‘'मुक्तिबोध ने न केवल तुलसी कि पुराण मतवादी चेतना और समन्वयवाद की दोहरी व्यवस्था का विरोध किया है बल्कि उसे पुष्ट करने वाले ‘पंडित रामचन्द्र शुक्ल की वर्णाश्रमधर्मी जातिवादग्रस्त समाजिकता’ और ‘सच्ची जनवादी समाजिकता’ मे सामंजस्य स्थापित करने वाली प्रगतिवादी आलोचना के प्रति अपना आश्चर्य भी प्रकट किया है ।’' वस्तुतः प्रगतिशील, जनवादी परंपरा के संधान में ‘परंपरा का मूल्यांकन’ करते हुए,अतिरिक्त उत्साह में, वर्चस्व की संस्कृति और प्रतिगामी साहित्य को भी उपयोगी मानने-मनवाने की जो कोशिशें जाने-अनजाने हुई , उनकी जांच –परख का समय अब आ गया है ।   

चौथीराम जी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास- लेखन और आलोचना कर्म को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास- लेखन और आलोचना कर्म का पूरक प्रयास मनाने से इंकार कर देते हैं ।वे प्रश्न करते हैं –‘'पूरक प्रयास का मतलब क्या इतना भर है कि शुक्ल जी ने वीरगाथाओं का मूल्यांकन किया तो द्विवेदी जी ने सिद्धों-नाथों की बानियों का ; एक ने तुलसी पर पुस्तक लिखी तो दूसरे ने कबीर पर। सवाल यह है कि  क्या आचार्य शुक्ल ने पहले ही तय कर लिया था कि किस पर लिखना है और क्या छोड़ देना है ?या द्विवेदी जी ने प्रायोजित ढंग से उसी पर लिखने का निश्चय किया जिसे शुक्ल जी ने छोड़ दिया था ? पूरक प्रयास का मतलब यदि विकास से है तो क्या उसमें विचारधारा भी शामिल है या नहीं? यदि शामिल हैं तो क्या हजारी प्रसाद द्विवेदी शुद्धतावाद और यथास्थितिवाद के समर्थक आचार्य शुक्ल की सीमाओं का विकास कर रहे थे या वर्चस्ववादी विचार परंपरा की केन्द्रीयता को विखंडित कर प्रति परम्पराओं के विमर्श द्वारा नए मूल्य –मानों की खोज कर रहे थे?’' उद्धरण लंबा हो गया, किन्तु चौथीराम जी की तर्क पद्धति को समझने के लिए आवश्यक है । खास कर मसला जब आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी जी के बीच का हो, बड़े–बड़े वाग्वीर खड्ग, तलवारें लेकर हाजिर हो जाएंगे। इतनी साफगोई के साथ, निडर होकर आचार्य शुक्ल को ‘शुद्धतावाद’, ‘यथास्थितिवाद’  का समर्थक कहने का साहसी ही प्रतिरोध की परंपरा का संवाहक हो सकता है ।   

चौथीराम जी कबीर की शास्त्र निरपेक्ष विचारधारा को वैदिक- पौराणिक विचारधारा की वर्चस्ववादी संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की संस्कृति का सशक्त हस्तक्षेप मानते हैं और प्रतिरोध की इस परंपरा से प्रेमचंद, मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, काशीनाथ सिंह, राजेश जोशी, अरुण कमल, आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल, ज्ञानेन्द्र पति, उदय प्रकाश और आज के स्त्री लेखन एवं दलित लेखन को जोड़ते हैं । ‘हिन्दी नवजागरण और उत्तर सदी के विमर्श ’आलेख मे वे दलित चिंतक धर्मवीर द्वारा बुद्ध चिंतन को दलितों के लिए अप्रासंगिक मानते हुए यह लिखे जाने पर कि- ‘बुद्ध के धर्म और दर्शन के बारे में बीसवीं शताब्दी के चिंतकों के मन मे भारी गलतफहमियाँ रही थी । चूंकि उन्हे ब्राह्मणवाद का विरोध करना था, जो उन्हें करना ही चाहिए था, इसलिए वे सीधे बुद्ध के चिंतन को अख्तियार करने की ओर चलते गए। इस खाई में दलित और द्विज दोनों ओर के विद्वान गिरे। स्त्रियां भी इस चिंतन की तबाही से बची नहीं रह सकीं।

चौथीराम का व्यंग्यकार मुखर हो उठता है, बेधड़क टिप्पणी करते हैं

यह तो बहुत बुरा हुआ ! बहुत ही खौफनाक हादसा ! चिंतन की ऐसी तबाही कि उसके प्रकोप से कोई नहीं बच सका। सभी खाई में गिरे दलित भी द्विज भी, पुरुष भी स्त्रियां भी, यहां तक कि डॉ अंबेडकर भी और उनका दलित आंदोलन भी। गनीमत मानिए कि बचे रह गए डॉ धर्मवीर –अकेले मनु की तरह ‘भींगे नयनों से’ उस तबाही का मंजर देखने के लिए ; अन्यथा मनुस्मृति के समानान्तर दलितों के लिए ‘पृथक स्मृति' कौन लिखता? उनके लिए अलग धर्म की चिंता कौन करता?’ मुझे लगता है ‘नए मनु’ को जितनी ‘टीस’ इस टिप्पणी से हुई होगी उतनी तो लेखिकाओं के ‘हल्ला बोल’ से भी नहीं हुई होगी। यहां उद्देश्य सिर्फ डॉ धर्मवीर को चिढ़ाने का नहीं है, बल्कि बुद्ध और अंबेडकर के प्रतिरोध की संस्कृति की विरासत को सही संदर्भ में समझे जाने और उसके विकास का है ।       

चौथीराम जी डॉ धर्मवीर द्वारा लिखित ‘तीन द्विज हिन्दू स्त्रीलिंगों का चिंतन’ को आड़े हाथों लेते हैं और रमणिका गुप्ता, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा के चिंतन को ज़ारकर्म को बढ़ावा देने वाला चिंतन मानने का विरोध करते हैं। वे इन स्त्रीवादी चिंतकों के लेखन को आशा भरी दृष्टि से देखते हैं। वे लिखते हैं - ''समकालीन स्त्री-विमर्श स्त्री को शरीर मानने के विरुद्ध व्यक्ति मानने की मांग करता है, देवी नहीं मानुषी समझे जाने की वकालत करता है। और सबसे बड़ी बात अस्मत के स्थान पर अस्मिता को महत्व देता है। यही कारण है कि आज का स्त्री-विमर्श देवी और भोग्या के खोल से बाहर निकलते हुए पूर्व स्थापित स्त्री विरोधी मूल्य –मानों को तोड़कर वर्चस्ववादी संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की संस्कृति में विश्वास करता है जिसमें स्त्री के हित और अधिकार, समता और स्वतन्त्रता के साथ सुरक्षित हों।"

यह प्रतिरोध वे अपनी लिखित और वाचिक दोनों तरह की आलोचना में करते रहते हैं। दलित और स्त्री मुद्दों पर बोलते हुए वे इतने आक्रामक हो  जाते हैं कि इन मुद्दों के  प्रतिपक्ष में बोल रहे वक्ता हतवाक रह जाते हैं । 16 जून 2013 को दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) के आयोजन में आलोचक प्रवर -शशिभूषण ‘शीतांशु’ की स्त्री लेखन के यौनिकता केन्द्रित होने की  टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होने कहा – ‘कुछ लोग दलित और स्त्री-विमर्श का नाम सुनते ही ऐसे भड़कते हैं, जैसे लाल कपड़ा देख कर सांड।’' उन्हें थोड़ा-बहुत पढ़ने वाले और अधिकतर सुनने वाले जानते हैं कि वर्चस्व की संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर हैं, वे प्रतिरोध की संस्कृति के संवाहक हैं।

(वरिष्ठ आलोचक-लेखक व चिंतक चौथीराम यादव को सत्राची सम्मान 2022 से सम्मानित किए जाने पर डाॅ कृष्ण ने आभासी दुनिया की दीवार पर उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का कुछ यूं मूल्यांकन किया है।)

डाॅ कृष्ण की आभासी दुनिया से ली गयी सामग्री


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.